Wednesday, March 2, 2011

बेन्चमार्क अलग-अलग हैं हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकें खरीदने के?

पिछले दिनों अखबारों में "ऋग्वेद" की रुपये आठ सौ की कीमत पर कुछ प्रतिक्रियायें थीं कि यह कीमत ज्यादा है, कुछ अन्य इस कीमत को खर्च करने योग्य मान रहे थे। एक मुद्दे की बात ये है की - क्या इस स्तर की अंग्रेजी की क्लासिक पुस्तक के लिये हम भारतीय इतना पैसा देने को सहर्ष तैयार रहते हैं और हिन्दी की पुस्तक के लिये ना नुकुर करते हैं? क्या हमारे हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के अलग-अलग बेन्चमार्क हैं?आप बतायें कि आप हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के बारे में सम दृष्टि रखते हैं या अलग पैमाने से तय करते हैं?सबकी अपनी मानसिकता हो सकती है. मेरा किताब के मामले में एक सा दृष्टिकोण है हिन्दी और अंग्रेजी को लेकर. जो पसंद आ जाये वो चाहिये, भले थोड़ा रुक कर या कहीं और कुछ कमी करके. मगर यह भी तय है कि व्यर्थ गंवाना भी नहीं चाहता किसी मंहगी किताब पर बिना जाने. अक्सर मित्रों से बातकर या समिक्षा आदि देखकर ही निर्णय लेता हूँ या अपने पसंदिदा लेखकों की बिना सोच समझे...हाँ..अंग्रेजी हिन्दी दोनों में.मामला हिन्दी और अंग्रेजी का नहीं है। मामला पुस्तक के उस वास्तविक मूल्य का है जो पाठक अपनी आवश्यकता के आधार पर मापता है। विक्रय मूल्य और पाठक की आवश्यकता का मूल्य, दोनों के अन्तर पर निर्भर करता है पुस्तक का खरीदना।मेरे लिए सवाल हिन्दी अंगरेजी का नही ,पुस्तक की विषय वस्तु और अंतर्वस्तु का है -किताब मन को भा जाय तो उसे खरीदना ही है -पैसे का जुगाड़ जैसे तैसे हो ही जाता है .
भारत में भी किताबें सस्ती नही रह गयीं हैं -आलोच्य पुस्तक इसका उदाहरण है .प्रकाशक केवल जोड़ तोड़ कर लायिब्रेरियों में पुस्तकों को खपाने के चक्कर में इनका दाम बेतहाशा बढ़ा देते हैं .शायद उनकी यह मजबूरी हिन्दी पाठकों मे पढने की आदत का तेजी से घटते जाना है .
पूरा परिदृश्य ही घोर निराशा जनक है -हम और आप चंद सुविधा संपन्न लोग ऋग्वेद की दो चार प्रतियाँ खरीद भी लेंगे तो उससे क्या हो सकेगा !हिन्दी में स्तरीय साहित्य के पाठकों का भयंकर टोटा है -कैसे बदलेगी यह स्थिति ?और उस पर से यह डिजिटल जगत भी मुद्रण साहित्य की दुकान बंद कराने पर अब आमादा लग रहा है.महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा अनुवादित चारों वेद घर में हैं. पिताजी बताते है १९७५ में आर्य समाज के शताब्दी वर्ष में खरीदे गए थे, तब सब्सिडाइज्द कीमत ढाई सौ रुपए थी इन जम्बो साइज के ग्रंथों की. अब इसे हमारी खुशकिस्मती मानें या हम लोगों की बदकिस्मती कि इन चारों वेदों की भौतिक अवस्था एकदम चकाचक है.मुझे तो लगता है कि हिंदी पुस्‍तकों की कीमत इतनी कम होती है कि उन्‍हें खरीदना कोई समस्‍या नहीं है.राग दरबारी और बारामासी जैसी पुस्‍तकें सौ रुपये तक में पेपरबैक संस्‍करण में मिल जाती हैं.
खासकर राजकमल,राजपाल, वाणी पेपरबैक ने तो सस्‍ती और अच्‍छी हिंदी पुस्‍तकों को पाठकों को उपलब्‍ध कराने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है.
हिंदी में भी कुछ स्‍वनामधन्‍य लेखकों की पुस्‍तकें आपको अनाप-शनाप दामों में मिल जायेंगीं पर उनमें पढ़ने लायक कुछ नहीं होता.
हिंदी में मानसिकता किफायत की नहीं बल्कि ना पढ़ने की है...आजकल आप खुद को हिंदी साहित्‍य का प्रेमी कहें तो शायद लोग नाक-भौं ही सिकोड़ें कि फलां तो निरा फालतू है... पर यदि आप अंग्रेजी पुस्‍तकें पढ़ते हैं तो बिना कुछ कहे ही विद्वान मान लिये जायेंगे.इसका एक अच्‍छा तरीका ये भी है कि आप अंग्रेजी पुस्‍तकें ना भी पढ़ें और उनकी समीक्षाएं नियमित रूप से पढ़ें तो ही लोग आपको विद्वान मान लेंगे...यह मेरा व्‍यक्तिगत अनुभव है.औसत हिंदी वाला किताबों को लेकर विकट चिरकुट मानसिकता में घुस जाता है। मध्यवर्गीय परिवार जो महीने के तीन चार हजार आऊटिंग पर उडा देते हैं, आठ सौ रुपये की किताबों में चूं चूं करने लगते हैं। कोई भी रेस्टोरेंट में जाकर जलेबी और दोसे पर डिस्काऊंट नहीं मांगता, पर किताबों पर नब्बे प्रतिशत डिस्काउंट चाहिए। हिंदी में प्रकाशक भी आम तौर पर आम पाठकों के लिए नहीं लाइब्रेरियों में भ्रष्ट कारोबार के लिए छापते हैं। इसलिए हिंदी के अधिकांश प्रकाशकों द्वारा छापी जाने वाली किताबें छपती हैं, बिकती हैं, लाइब्रेरी में डंप हो जाती है। पर पढ़ी नहीं जातीं।खरीदने के तो छोड़िये? यहाँ तो बेचने के भी बैंचमार्क अलग हैं. बाजार में अंग्रेजी की कई पत्रिकाएं 100 से 250 रुपए मूल्य तक की हैं, और धड़ल्ले से बिकती हैं. हिन्दी की कोई भी पत्रिका 40-50 रुपए से अधिक मूल्य की मैंने नहीं देखी है.आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि अंग्रेज़ी के प्रकाशक किसी किताब की मार्केटिंग में हिंदी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ख़र्च करते हैं, जिसका दाम पर असर दिखता है. शायद अंग्रेज़ी वाले प्रकाशक लेखक को ढंग की रॉयल्टी भी ईमानदारी से देते होंगे, और दाम में इसका भी कुछ योगदान रहता होगा. दूसरी ओर हिंदी प्रकाशकों के बारे में आम राय ये है कि उनकी प्राथमिकता(ख़ास कर हार्डकवर संस्करण के मामले में) आम पाठक नहीं बल्कि थोक ख़रीद करने वाले सरकारी संस्थान/पुस्तकालय/शिक्षण संस्थान होते हैं, इसलिए किताब की लागत और मूल्य में कोई तार्किक संबंध नहीं होता. हिंदी प्रकाशक लेखकों को मेहनताना देते हैं, ऐसा मानने वाले लोग अब भी थोड़े ही हैं. इस तरह की मान्यताएँ स्वीकार्य होने पर अंग्रेज़ी की किताबों के लिए थोड़ा ज़्यादा ख़र्च करते समय लोग ज़्यादा सोच-विचार नहीं करते.सुना है विदेशों के अनुपात में भारत में कागज़ पर छपी सामग्री सस्ती है। उदाहरण के लिए सिंगापुर व फ़िलिपींस में भी कहीं १ रुपए की कीमत पर अखबार नहीं मिलता है। देश के धनाड्य या गरीब होने से इसका वास्ता कम है, हमारे यहाँ वास्तव में पाठन सामग्री सस्ती है।वैसे एक बात बताता हूँ मेरा एक मित्र काफी समय से लन्दन में रह रहा है वहाँ के कई यूरोपीय लेखकों की कई किताबें वह भारत में खरीदता है, बहुत सस्ती मिल जाती हैं यहाँ के मापदण्ड़ों से. रिच डैड पुअर डैड, हू मुव्ड माई चीज़, काईट रनर, थाउजेन्ड स्प्लेन्डिड सन्स...यह सब इसी की वजह है. लगभग ३०% कीमत पर मिल जाती है यहाँ.यकीनन अंगरेजी और हिंदी के मानदंड अलग हैं।

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