Sunday, August 14, 2011

तो आप मुर्ख ही हैं

अगर आप सोच रहे हैं कि पेट्रोल फिर सस्ता होनेवाला है तो UPA सरकार कि नज़र में आप निहायत बेवकूफ़ इंसान हैं
अगर आपको लगता है कि फेसबुक पर SAVE THE TIGER पेज को LIKE करने से TIGER सेव हो जाएंगे तो आप मुर्ख ही हैं
अगर आप सीरियसली सोच रहे हो कि इस सिगरेट के बाद आप सिगरेट को छुओगे भी नहीं तो कसम मार्लबोरो कि आप बहुत बेवकूफ़ हो
अगर आप 1 मेसेज या मेल को 10 लोगों को फारवर्ड करके भगवान से 10 इच्छाएँ पूरी होने कि आशा रखते हो तो वोडाफ़ोन भी तो कहेगा आप बेवकूफ़ हो
अगर आपको लगता है कि लिफ्ट का बटन बार बार दबाने से लिफ्ट जल्दी आ जायेगी तो ओटीस कि कसम आप सा कोइ मुर्ख नहीं
अगर आपको लगता है कि रूपा फ्रंटलाइन पहन कर आप लाइन में सबसे आगे जायेंगे तो राजपाल यादव भी कहेगा आप तो निहायत ही बेवकूफ़ इंसान हैं।
तो फिर बताओ भाई कौन कह रहा है कि आप पढ़े लिखे समझदार इंसान हैं,कोई भी नहीं ना ???

Sunday, July 10, 2011

इस वर्चुअल दुनिया में अकेले हम अकेले तुम

आजकल सिर्फ़ रात को सोने के बाद और सुबह उठने से पहले इंटरनेट की ज़रूरत नहीं रहती. दिन भर दफ़्तर में, सुबह-शाम घर में, और रास्ते में मोबाइल फ़ोन पर हर जगह इंटरनेट की जरुरत महसूस होती है,और जब से यह इन्टरनेट ख़ुद तारों के बंधन से मुक्त हुआ है तबसे उसने हमें और कसकर जकड़ लिया है. वाईफ़ाई यानी वायरलेस इंटरनेट और मोबाइल इंटरनेट के आने के बाद तो ब्लैकबेरी और आईफ़ोन ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है.अरे हर उपकरण में नेट चाहिए.
मेरे फ़ेसबुक और ओरकुट वाले दोस्तों की संख्या 200-300 है,और बढ़ती ही जा रही है असली वालों का पता नहीं.जब भी नेट चालू करो एक दो फ्रेन्ड रिक्वेस्ट मिलती ही हैं सच कहूँगा ज्यादातर दोस्त अड़ोस पड़ोस के ही होते हैं घर के सामने से निकल जाते हैं पर जन्मदिन की बधाई फेसबुक पर ही देते हैं फ़ेसबुक वाले दोस्तों का हाल जानने के बाद ख़्याल आता है कि पत्नी का हाल तो पूछा ही नहीं बड़ी उत्साहित थी, शायद बच्ची की किसी कारस्तानी के बारे में बताना चाहती थी उसकी बात सुन ही नहीं पाया, और अब तो वह सो गयी है
आपमें से बहुत लोग बिछड़े दोस्तों के मिलने की बात कहेंगे, इंटरनेट को एक क्रांति एक वरदान बताएँगे, अरे मैं कब इनकार कर रहा हूँ. आप कहेंगे कि हर चीज़ की अति बुरी होती है, और मेरे जैसे लोगों को रियल वर्ल्ड और वर्चुअल वर्ल्ड में संतुलन बनाने की ज़रूरत है.अरे मैंने संतुलन बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन अभी यही तय नहीं हो पा रहा है कि रियल वर्ल्ड कहाँ ख़त्म होता है और वर्चुअल वर्ल्ड कहाँ से शुरू होता है, संतुलन बनाऊँ तो कैसे, आप कैसे बनाते हैं जरुर बताना ? बड़ा फ्रस्ट्रेशन होता है मध्यप्रदेश में बिजली की हालत तो सभी को ज्ञात है,कई बार तो स्वयं को समझाना पड़ता है कि इंटरनेट कनेक्शन ड्रॉप होना और बिजली का जाना उतनी बुरी चीज़ नहीं है जितनी लगती है.
क्या हम अकेले पड़ते जा रहे हैं?इसलिए हमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स की ज़रूरत है या सोशल नेटवर्किंग साइट्स ही हमें अकेला बना रही हैं? अकेलेपन के मर्ज़ की दवा हम इंटरनेट से माँग रहे हैं, क्या यह अपनी ही परछाईं को पकड़ने की नाकाम कोशिश सी नहीं लगती?
असली रोग, उसके बाहरी लक्षण और इलाज सब इस जाल के एक सिरे से शुरु होते हैं थोड़ी दूर जाकर उलझ जाते हैं, दुसरा सिरा कभी नहीं मिलता.
अपने कमरे में बैठकर आप पूरी दुनिया से जुड़ जाते हैं और अपने ही घर से कट जाते हैं.
वर्चुअल आफिस,वर्चुअल दोस्त, वर्चुअल खेल, वर्चुअल बर्थडे केक/कार्ड ,वर्चुअल गिफ्ट्स,
और साथ में ढेर सारा रियल अकेलापन, रियल बेचैनी.

Sunday, June 12, 2011

ना बाबा का ना अन्ना का

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

भारत सरकार से भष्टाचार के लिए बात करना और पाकिस्तान के साथ आतंकवाद की बात करना एक जैसी बात है. दोनों ही मामलों में जो विरोध करेगा सरकार उसको चुप करवाने के लिए पूरा दम लगा देगी मुद्दा कालेधन का हो या भ्रष्टाचार का, सरकार ने समय पर लगाम लगाने में सक्षम न होने के कारण,जनता के आक्रोश को, गुस्से में खीझ कर, जनआंदोलन को कुचलने का प्रयास किया है.यह तो जन आंदोलन, न तो ,बाबा रामदेब का है और न ही अन्ना हजारे का , ये तो जनआक्रोश है.मेरा तो यह भी मानना है की बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे के आंदोलनों के खिलाफ बोलने वाला हर इंसान भ्रष्टाचारी है. सरकार की मंशा साफ नही है, और हाँ बाबा रामदेव भी बहुत बोलते है. इस कारण तर्क - वितर्क व कुतर्क ज़्यादा जल्दी आ रहे हैं और बाबा उसमे उलझ गए है पर उनकी नीयत पर किसीको शक नहीं होना चाहिए.
बाबा यदि महत्वाकांक्षी भी हैं तो क्या गलत है ?लोकतंत्र में राजनीति किसी की बपौती नहीं है. योगी को भी उसमें आने का उतना ही अधिकार है जितना कि भोगी को. भारत की राजनीति भ्रष्टाचारियों से भर गई है जो नहीं चाहते कि कोई अच्छा मनुष्य राजनीति में आए. आग और पानी साथ-साथ तो नहीं रह सकते न. बाबा रामदेव के अनशन पर सरकार की हिंसात्मक कार्रवाई विनाश के लक्षण हैं.माँगे व्यवहारिक न भी हों तो क्या आम आदमी की भावनाओ को लाठी डंडे या आँसू गैस से दबाना चाहिए? अंग्रेज भी ऐसा ही बर्ताव करते थे तो फिर आज़ाद भारत मे क्या बदला है, सिवाय डंडे भाँजने वालों के चेहरे के? दुनिया में जहां भी एक परिवार का राज रहा है - चाहे वो ट्यूनिशिया हो, मिस्र हो, लीबिया हो, सीरिया या बहरीन हो, वहां के शासक विरोधियों को तितर बितर करने की कोशिश करते हैं. जो नई दिल्ली में हुआ, वो सीरिया और बहरीन में चल रहे गतिरोध से कुछ अलग नहीं है.

Sunday, May 1, 2011

Carbon Footprint?

Carbon Footprint is actually our contribution in emitting/producing greenhouse gases and this is measured in kilograms of Carbon Dioxide.You know that any activity which involves the consumption of electricity and heat contributes in C02 emission and today more or less heat & electricity is conventionally created by the burning of fossil fuels.
It is very important because Greenhouse gases are heating our planet and creating climate changes all over the world. They trap heat from the sun and create a phenomenon we know as Global Warming. We can safeguard our future and help maintain the environmental balance by minimizing our greenhouse gas emissions and optimizing fossil fuel usage
Any activity it may be using an air conditioner,a computer or even burning a CD,Almost every activity we do generates a carbon footprint which is an index of the impact we have on our planet.
For example,eating a single burger can result in a footprint of 3.1 kgs/CO2 – the equivalent of one meal for three people.and A single spam message has a carbon footprint of 0.3 grams of carbon dioxide which is equal to driving three feet in a car.
Carbon footprint is measured by the emission of greenhouse gases responsible for Global Warming.This value is expressed in kilograms of Carbon.Living a negative footprint life is next to impossible,but we can make efforts to reduce it by making a few efforts.Many carbon footprint calculators are awailable on the net.
How to reduce your Carbon Footprint?
The first step is to be aware of the impact our activities have on the environment.
Start by calculating your Carbon Footprint.I believe that it's possible
to make a significant improvement with small, meaningful changes

1.Use rechargeable batteries to reduce toxic waste accumulation
2.Switch off appliances like your TV or music system instead of keeping them on standby
3.Always refuel when the fuel tank is almost empty
4.Use fluorescent lights instead of yellow light bulbs to save energy at home.
And many more.
Courtsey-Volkswagen,Das Auto

Friday, April 29, 2011

देशवासियों सचेत रहना

It is just a matter of time that Asanze of Wikileaks will expose the names of Indian account holders of 30 lakh crores lying in Swiss Banks.You will see all the big names will be exposed.
I fear that to cover this up these account holders must be having some strategy,they will try to divert the attention of the countrymen either by communal riots or a conflict with Pakistan or some other issue.
Do you remember the days when Telgi exposed the name of Panwar in stamp scam,the attention was diverted due to Malegaon riots.
This time the stakes are much higher and the players are much bigger,
So all of us must be aware

Sunday, April 17, 2011

हर एक गली-कूचा तहरीर चौक

मुझे डिस्कवरी चैनल देखने का थोड़ा बहुत शौक़ है.एक बार मैंने अंटार्कटिका पर एक कार्यक्रम देखा था.उसमें दिखाया गया था कि गर्मियों में पेंगुइन कैसे वहां भोजन की तलाश में जमा होती हैं.वो लाखों की तादात में पहुंचती हैं.मगर बर्फीले पानी में पहले गोता लगाने की हिम्मत किसी की नहीं होती.वो सब इंतज़ार ही करती रहती हैं किसी एक की पहल का क्योंकि नीचे पानी में विशालकाय समुद्री मछलियां भी भोजन की ताक में चक्कर लगा रही होती हैं.वहां सबसे बड़ा सवाल ये होता है कि कौन पहले गोता लगाकर पता लगाए कि नीचे ख़तरा है या नहीं है.उस लाखों की भीड़ में जो सबसे आगे खड़ा होता है उसे ज़ोर का धक्का लगता है और वो नीचे जा गिरता है.अब सब ये तमाशा देख रहे होते हैं कि वो ज़िंदा बाहर निकल पाता है या नहीं.लेकिन जैसे ही वो सुरक्षित बाहर निकलता है किनारे पर खड़ी लाखों पेंगुइन गोता लगा देती हैं.
इस कहानी से दो सीख मिलती है.
एक जीने के लिए सबको भोजन चाहिए.हम भारतीय कुछ ऐसे ही बेचारे हैं.हम डरपोक हैं इसलिए हमेशा शूरवीरों की तलाश में रहते हैं.यही कि सबसे पहले कौन क़ुर्बानी दे.मगर हम ये ही नहीं समझ पाते कि अगर ठान लिया जाए तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है.
दूसरी सीख कि एक आदमी काफ़ी होता है वक़्त को बदलने के लिए.मगर कोई अपनी ताक़त आज़मा कर तो देखे.जिस दिन हर एक घऱ से एक-एक हिंदुस्तानी देश की खातिर निकलेगा तब देख लीजिएगा हिंदुस्तान का हर एक गली-कूचा तहरीर चौक बन जाएगा और तभी निकलेगा बदलाव का सूरज.

Wednesday, March 2, 2011

बेन्चमार्क अलग-अलग हैं हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकें खरीदने के?

पिछले दिनों अखबारों में "ऋग्वेद" की रुपये आठ सौ की कीमत पर कुछ प्रतिक्रियायें थीं कि यह कीमत ज्यादा है, कुछ अन्य इस कीमत को खर्च करने योग्य मान रहे थे। एक मुद्दे की बात ये है की - क्या इस स्तर की अंग्रेजी की क्लासिक पुस्तक के लिये हम भारतीय इतना पैसा देने को सहर्ष तैयार रहते हैं और हिन्दी की पुस्तक के लिये ना नुकुर करते हैं? क्या हमारे हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के अलग-अलग बेन्चमार्क हैं?आप बतायें कि आप हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के बारे में सम दृष्टि रखते हैं या अलग पैमाने से तय करते हैं?सबकी अपनी मानसिकता हो सकती है. मेरा किताब के मामले में एक सा दृष्टिकोण है हिन्दी और अंग्रेजी को लेकर. जो पसंद आ जाये वो चाहिये, भले थोड़ा रुक कर या कहीं और कुछ कमी करके. मगर यह भी तय है कि व्यर्थ गंवाना भी नहीं चाहता किसी मंहगी किताब पर बिना जाने. अक्सर मित्रों से बातकर या समिक्षा आदि देखकर ही निर्णय लेता हूँ या अपने पसंदिदा लेखकों की बिना सोच समझे...हाँ..अंग्रेजी हिन्दी दोनों में.मामला हिन्दी और अंग्रेजी का नहीं है। मामला पुस्तक के उस वास्तविक मूल्य का है जो पाठक अपनी आवश्यकता के आधार पर मापता है। विक्रय मूल्य और पाठक की आवश्यकता का मूल्य, दोनों के अन्तर पर निर्भर करता है पुस्तक का खरीदना।मेरे लिए सवाल हिन्दी अंगरेजी का नही ,पुस्तक की विषय वस्तु और अंतर्वस्तु का है -किताब मन को भा जाय तो उसे खरीदना ही है -पैसे का जुगाड़ जैसे तैसे हो ही जाता है .
भारत में भी किताबें सस्ती नही रह गयीं हैं -आलोच्य पुस्तक इसका उदाहरण है .प्रकाशक केवल जोड़ तोड़ कर लायिब्रेरियों में पुस्तकों को खपाने के चक्कर में इनका दाम बेतहाशा बढ़ा देते हैं .शायद उनकी यह मजबूरी हिन्दी पाठकों मे पढने की आदत का तेजी से घटते जाना है .
पूरा परिदृश्य ही घोर निराशा जनक है -हम और आप चंद सुविधा संपन्न लोग ऋग्वेद की दो चार प्रतियाँ खरीद भी लेंगे तो उससे क्या हो सकेगा !हिन्दी में स्तरीय साहित्य के पाठकों का भयंकर टोटा है -कैसे बदलेगी यह स्थिति ?और उस पर से यह डिजिटल जगत भी मुद्रण साहित्य की दुकान बंद कराने पर अब आमादा लग रहा है.महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा अनुवादित चारों वेद घर में हैं. पिताजी बताते है १९७५ में आर्य समाज के शताब्दी वर्ष में खरीदे गए थे, तब सब्सिडाइज्द कीमत ढाई सौ रुपए थी इन जम्बो साइज के ग्रंथों की. अब इसे हमारी खुशकिस्मती मानें या हम लोगों की बदकिस्मती कि इन चारों वेदों की भौतिक अवस्था एकदम चकाचक है.मुझे तो लगता है कि हिंदी पुस्‍तकों की कीमत इतनी कम होती है कि उन्‍हें खरीदना कोई समस्‍या नहीं है.राग दरबारी और बारामासी जैसी पुस्‍तकें सौ रुपये तक में पेपरबैक संस्‍करण में मिल जाती हैं.
खासकर राजकमल,राजपाल, वाणी पेपरबैक ने तो सस्‍ती और अच्‍छी हिंदी पुस्‍तकों को पाठकों को उपलब्‍ध कराने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है.
हिंदी में भी कुछ स्‍वनामधन्‍य लेखकों की पुस्‍तकें आपको अनाप-शनाप दामों में मिल जायेंगीं पर उनमें पढ़ने लायक कुछ नहीं होता.
हिंदी में मानसिकता किफायत की नहीं बल्कि ना पढ़ने की है...आजकल आप खुद को हिंदी साहित्‍य का प्रेमी कहें तो शायद लोग नाक-भौं ही सिकोड़ें कि फलां तो निरा फालतू है... पर यदि आप अंग्रेजी पुस्‍तकें पढ़ते हैं तो बिना कुछ कहे ही विद्वान मान लिये जायेंगे.इसका एक अच्‍छा तरीका ये भी है कि आप अंग्रेजी पुस्‍तकें ना भी पढ़ें और उनकी समीक्षाएं नियमित रूप से पढ़ें तो ही लोग आपको विद्वान मान लेंगे...यह मेरा व्‍यक्तिगत अनुभव है.औसत हिंदी वाला किताबों को लेकर विकट चिरकुट मानसिकता में घुस जाता है। मध्यवर्गीय परिवार जो महीने के तीन चार हजार आऊटिंग पर उडा देते हैं, आठ सौ रुपये की किताबों में चूं चूं करने लगते हैं। कोई भी रेस्टोरेंट में जाकर जलेबी और दोसे पर डिस्काऊंट नहीं मांगता, पर किताबों पर नब्बे प्रतिशत डिस्काउंट चाहिए। हिंदी में प्रकाशक भी आम तौर पर आम पाठकों के लिए नहीं लाइब्रेरियों में भ्रष्ट कारोबार के लिए छापते हैं। इसलिए हिंदी के अधिकांश प्रकाशकों द्वारा छापी जाने वाली किताबें छपती हैं, बिकती हैं, लाइब्रेरी में डंप हो जाती है। पर पढ़ी नहीं जातीं।खरीदने के तो छोड़िये? यहाँ तो बेचने के भी बैंचमार्क अलग हैं. बाजार में अंग्रेजी की कई पत्रिकाएं 100 से 250 रुपए मूल्य तक की हैं, और धड़ल्ले से बिकती हैं. हिन्दी की कोई भी पत्रिका 40-50 रुपए से अधिक मूल्य की मैंने नहीं देखी है.आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि अंग्रेज़ी के प्रकाशक किसी किताब की मार्केटिंग में हिंदी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ख़र्च करते हैं, जिसका दाम पर असर दिखता है. शायद अंग्रेज़ी वाले प्रकाशक लेखक को ढंग की रॉयल्टी भी ईमानदारी से देते होंगे, और दाम में इसका भी कुछ योगदान रहता होगा. दूसरी ओर हिंदी प्रकाशकों के बारे में आम राय ये है कि उनकी प्राथमिकता(ख़ास कर हार्डकवर संस्करण के मामले में) आम पाठक नहीं बल्कि थोक ख़रीद करने वाले सरकारी संस्थान/पुस्तकालय/शिक्षण संस्थान होते हैं, इसलिए किताब की लागत और मूल्य में कोई तार्किक संबंध नहीं होता. हिंदी प्रकाशक लेखकों को मेहनताना देते हैं, ऐसा मानने वाले लोग अब भी थोड़े ही हैं. इस तरह की मान्यताएँ स्वीकार्य होने पर अंग्रेज़ी की किताबों के लिए थोड़ा ज़्यादा ख़र्च करते समय लोग ज़्यादा सोच-विचार नहीं करते.सुना है विदेशों के अनुपात में भारत में कागज़ पर छपी सामग्री सस्ती है। उदाहरण के लिए सिंगापुर व फ़िलिपींस में भी कहीं १ रुपए की कीमत पर अखबार नहीं मिलता है। देश के धनाड्य या गरीब होने से इसका वास्ता कम है, हमारे यहाँ वास्तव में पाठन सामग्री सस्ती है।वैसे एक बात बताता हूँ मेरा एक मित्र काफी समय से लन्दन में रह रहा है वहाँ के कई यूरोपीय लेखकों की कई किताबें वह भारत में खरीदता है, बहुत सस्ती मिल जाती हैं यहाँ के मापदण्ड़ों से. रिच डैड पुअर डैड, हू मुव्ड माई चीज़, काईट रनर, थाउजेन्ड स्प्लेन्डिड सन्स...यह सब इसी की वजह है. लगभग ३०% कीमत पर मिल जाती है यहाँ.यकीनन अंगरेजी और हिंदी के मानदंड अलग हैं।